प्रणव नार्मदेय केर कविता 'पेस-पीस-स्पेस'

अहां जओ
अपन 'स्पेस'क खोज मे
ध्वस्त करैत छी 
ककरो जिनगीक 'पेस' आ 'पीस'
सहजें प्रमाणित होइत छी 
साहसी आ क्रांतिकारी 

मुदा जओ 
स्थिर रखबा लेल 
अपन 'पेस' आ 'पीस'
हेरैत छी कोनोखन अपन 'स्पेस'
चोट्टहि भ' जाइत छी घोषित हम 
अत्याचारी आ व्याभिचारी 

ओना 
बनाबैत अछि जाहिखन 
अहं अपन 'स्पेस' ककरो मोन मे
तखनहि लगैत अछि 
उखड़ए 'पेस' अपन 
आ 
अखरए 'पीस' अनकर 

त' 
किएक नहि हम-अहां 
बनबैत छी एक-दोसराक हिया मे
'स्पेस' अपन-अपन 
जाहि सं कि 
बनल रहए 'पेस' आ 'पीस'
सभक जिनगीक 

किएक त'
बनल रहत जाधरि
'स्पेस' इरखा आ स्वार्थक 
आओर 
नहि क' सकब खोज
अपन 'पीस' सबहक 'पेस' मे
बनओने रहत अशांति 
अपन 'स्पेस' अहिना 
जिनगी मे हमरा सभक


संपर्क: 7464049027

ई कविता प्रणव नार्मदेय केर प्रकाशित कविता संग्रह 'विसर्ग होइत स्वर' सं आभार सहित लेल गेल अछि.

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