के' अछि ओ?

के' अछि ओ? 

किए ओ अबैत अछि हमर एतेक निकट जखन हमर आंखि रहैत अछि निपट. 

किछु दिन सँ ने जानि किए अनेरो फिरेसान रहैत छी. दिन भरिक गुनधुन्नी केर बाद जखन निनिया केर प्रहार होइत अछि त' ने जानि कतय सँ ओ मुगदर नेने प्रकट भ' जाइत अछि. हम ई नहि कहब जे ओकर आयब हमरा सोहाइत नहि अछि. ओ कोनो राछसनी कोनो डाइन नहि अछि. मुदा हमरा ओकर कोनो प्रयोजन नहि. दिन भरिक काज-कसरतिक बाद पूर्ण निन्नक आस रहैत अछि. मुदा ओ स्वप्न मे आबि फुफकारय लगैत अछि. नहि-नहि ओ कोनो सर्प योनिक नहि अछि. ओ कोनो स्वप्न-परी त' नहि, जे मात्र सपने मे आयत आ ओकर यथार्थ सँ कोनो सम्बन्ध नहि. मुदा ने जानि ओ हमरा यथार्थक पाँजर मे ठाढ़ नजरि अबैत अछि.

निनिया हमरा अपन आँचर मे झपनहुं ने रहैत अछि कि ओ प्रकट भ' जाइत अछि. ओ अबैत अछि त' ने जानि कोन विचित्र बसात बहइए आ हमरा ओ अपन आंगुर पर नचायब शुरू करैत अछि. ओ बहुत बेसी रूपवती ओ मोहिनी अछि. ओकर देखिते जेना हम समूचा संसार बिसरि जाइत छी. पहिने हमरा सभ मोन रहैत अछि. देश-दुनिया आ संपूर्ण श्रृष्टि. मुदा जाओं-जाओं ओ अपन जादो चलबैत अछि कि हमरा एहि धरती, देश, समाज, संगी, परिवार, स्वयं सँ क्रमशः फराक करैत जाइत अछि. 

जखन हम सुतबा हेतु ओछाइन पर जाइत छी त' मोन मे वैश्विक कल्याण केर भावना रहैत अछि. दिन भरिक काज व्यस्तता केर बाद कने फ़ुरसति मे समूचा विश्व केर समस्या आ कल्याणक बात सभ मोन-मस्तिष्क मे घुमैत रहैत अछि. तखने निनिया कनिए अपन आँचर उठबैत अछि कि ओ सोझे आबि अटैक करैत अछि. ओकर रूप ओ माधुर्य मे हमर सोच शनैः शनैः संकीर्ण भेल जाइत अछि. ओ तेना ने ओझरओबैत अछि जे हमरा हेतु विश्व केs कहय देश, समाज सभ न्यून भ' जाइत अछि. ओकरा सोझा मे आकाशक क्षितिज छोट भ' जाइत अछि. हमर संगी वैह मात्र रहि जाइत अछि. ओ आ हम दुइये गोटेक परिवार भ' जाइत अछि. हमरा हेतु माय-बाप, भाय-बंधु कोनो महत्व नहि राखय लगैत अछि. ओ हमरा सभ सँ दूर बहुत दूर ने जानि कोन दुनिया मे ल' जाइत अछि. हम बहुत व्यस्त भ' जाइत छी. एतेक व्यस्त जे हमर अपनों जिनगीक मोह ओतेक नहि रहि जाइत अछि जतेक ओकर. प्राण वायु सँ बेसी जिनगी मे ओकर आवश्यकता बुझना जाय लगैत अछि. हम ओकरा संग अपन संसार बैसा लैत छी आ ओ रत्ती भरि संसार जेना ब्रह्मा केर ई विशाल श्रृष्टि कें चुनौती देबय लगैत अछि. हम संसार बसा ओही मे रमि जाइत छी. हमरा कोनो फर्क नहि पडैत अछि जे बाहरी दुनिया मे आगि लगैछ वा बज्जर खसैछ. हम अप्पन संसार कें चोपतय मे लागल रहैत छी आ चौपेतल अपन संसार कें देखि परमानन्द केर अनुभूति करैत छी.

निन्न टूटैत अछि. ओ ने जानि कतय बिला जाइत अछि? हमर ओ बसाओल संसार बिला गेल रहैत अछि. ओ स्वप्न-परी सेहो ने जानि कोन लोक मे चल गेल रहैत अछि. ने जानि किए हमरा अपराध बोध होइत रहैत अछि. लगैत रहैत अछि जे समूचा संसार जेना हमरा पर पिक्की पाडैत हो. कोढ़ धरकैत रहैत अछि. अपन ओ संसार सँ बाहर जेना ई संसार हमरा भिन्न क' देने छल. हम निराश भेल फेर एही संसार मे अपना कें रमयबाक बहन्ना तकैत छी.

ओ स्वप्न-परी के' रहैत अछि? के' अछि ओ? ओ हमर जिनगीक सहचरी त' नहि? नहि ओ एहन नहि भ' सकैछ. की ओ एहन भ' सकैछ जे हमरा सभ सँ एतेक दूर क' देत? मोन नहि मानैत अछि. ओ वैह त' नहि अछि? हँ वैह अछि ओ.   

— नवकृष्ण ऐहिक

#पेटारमेसं 


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