
एते सूनि दलालो जोशमे आबि गेल आ काँख तऽर दाबल कागतक बण्डल पटकि आँखि तरेरैत बाजल," तँ की हम भिखमंगा बुझाइत छी ? अपन स्वार्थसँ अहाँ आयल छी. ई हमर कर्मस्थल अछि तें नै तँ सब गरमी झाड़ि दितहुं.
आम आदमीकें गोस्सा चढ़ले रहै आब और बढ़ि गेलै. थरथराइत देह आ तोतराइत आवाजमे फुँफकारलक,"सा. . ." गारिसँ शुशेभित करैत," कतबो सूट-बूट लगा ले रहबें तऽ दलाले. जनता आ पदाधिकारी दुनूकें ठकै बला दलाल. तोरा तँ जेलमे जएबाक चाही.
दलाल कने कननमुँह केने बाजल,"हँ, हम दलाल छी मुदा भीतर बैसल पदाधिकारीसँ नीक छी ओ तँ बिनु मेहनत केने टाका लऽ कऽ कुर्सी आ इज्जत बेच दै छै मुदा हम मेहनत केलाक बाद टाका लै छी आ किछु नै बेचै छी. लोककें चोर-डकैत-घुसखोर नीक लागै छै मुदा कर्मठ-इमानदार नै."
आम आदमी चुप भऽ गेल आ एकटा पनसैया आ कागत दलालक हाथमे दऽ देलक.
— अमित मिश्र