रूपेश त्योंथ केर कविता 'विद्यापतिक आंखि मे नोर'


देखि हमरा चिंता भेल घोर,
विद्यापतिक आँखि मे नोर।

नहि देखल ई स्वप्न मे,
देखलहुं गिरीश पार्कक एक कात मे,
हुनक श्वेत प्रतिमा जेना हो,
पार्कक अन्य लता, पुष्प ओ
तरु सभ सं एकदम बारल,
कोनो व्यथा सं झमारल,
समय छल शीतकालक भोर।

पहिने विश्वास नहि भेल नजरि पर,
देखलहुं निहारि क' प्रतिमा पर,
हुनक नेत्र सं खसयबला छल नोर एक ठोप,
कोढ धरकय लागल छल जेना चलल हो तोप,
भेल छल ई हुनक नोर नहि, भ' सकैछ शीतक बूंद,
तखने टप सं खसल महि पर नोरक एक बूंद,
विश्वास भेल, देखलियनि हुनक कांपति ठोर।

हम कहलियनि-की मामिला छैक?
अहांक नेत्र सजल, किएक?
की, अहांक यशोगान मे कतहु कोताही?
ढेर उपलब्धि सभ अछि, आब कत्ते चाही?
कहू, मिथिला- मैथिलीक स्वर अछि दबल?
वा एकर विरोधी तत्व भेल अछि सबल?
थिर होऊ, नहि छोड़ब कोनो कसरि कोर।

मिथिला-मैथिलीक स्वर अछि प्रबल,
की कहै छियह सुनह कलबल,
आम मैथिल जाबे बुझत नहि मैथिलीक मोल,
ताबे की हेतह पीटने ढोल?
ई भेलह जे जरि ठूंठ आ फुनगी हरियर,
मुरही कम आ घुघनी झलगर,
खाली हमर गुण गएने किछु हेतह थोड़?

एतबे कहि ओ पुनः भए गेलाह पाथरक प्रतिमा,
धोआ गेल छल हमर मोनक कालिमा,
सूर्यक तीक्ष्ण रौद लागल, लेलहुं आंखि मुनि,
किरण फाडि देने छल शीतक प्रभावे लागल धुनि,
पेट मे कुदकय लागल छल नमहर बिलाइ,
इच्छा भेल होटल मे किछु डटि कए खाइ,
गेलहुं खाय, दए दाम माछ-भातक संग फ्री झोर।

आ कि शीघ्र अंतर्मन देलक एक प्रश्न पर जोर,
कोना सुखायत विद्यापतिक आंखि केर नोर?


— रूपेश त्योंथ  

(कविता संग्रह 'एक मिसिया' मे संकलित)

#पेटारमेसं 
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