प्रेमक बाट


(एक)
प्रेम लग हम
निरन्तरता धरि गेलहुँ
जाइत गेलहुँ, जाइते गेलहुँ
निरन्तरता कोनो वस्तु नहि रहैक,
ओ कोनो सीढियो ने रहै
कोनो सबारी गाडियो नै रहै-
जाइत जयबाक एक टा धारणा भरि रहैक
एत' धरि जे निरन्तरता कोनो मार्ग नहि होइछ
से नहियो हो, मार्गक आभासो तँ दखबैत
तकर कोनो रूप रेखा, आकार-प्रकार
पर्यावरण तरहक कोनो बोध जे
सम्वेदना, ग्यान-स्पन्दित मोन चेतना कें
सान्त्वना दितय, प्रबोधितय,
कहितय - 'बड़ थाकल लगै छ' तों
एक रती सुस्ता लए, छाहरि मे बैसि जा
बड. चण्डाल रौद छै
की जानि कखन मेघ लागि जाय
गरज'-बरिस' आ बिजलौका चमक' लागय
ठनका ठनक' लागय
झहर' लागय
मुदा हे जाय लगिह' तँ ई छत्ता संग ल' लीह'
कोनो बटोही ई छत्ता बिसरि क' चलि गेल रहथि
देखबा मे तं ओ ग्यान-बताहे लगैत रहय
ई टूटल कमानी, चेफरी लागल !
मुदा नेपलिया सखुआ काठो सँ मजगूत
बाँसक डंटी वला ई छत्ता !'

( दू )
परन्तु भाखा मे जीवन्त प्रखर ततेक जे
अपन तर्क सँ जल जकाँ अपने संगेँ बहा ल' जाय छलय !
एक राति ओ अनचोके कह' लागल-
-'अब भैए रहलए भोर । प्रस्थान करू । होउ विदा!'
हम ह्तप्रभ, सशंक ओकर मलिन उज्ज्बल प्रकशदीप्त
आँखि मे देखि क' चेतौलिऎक ओकरा-
-'एखनतँ आधा राति बाँचल छैक । अहाँ कहैत छिऎक प्रात ?'
ओ बड. क्ठोरता सँ बिहुँसल-गोपी आम !'
-'कोना साबित करब' ई प्रात नहि छैक ?'

(तीन )
हमरा मोन मे फूटि रहल अछि कोंपडे.-कोंपड.
अपन जडि. रक्तवर्ण गाछ कें गुदगुदी लगा रहलए
आबि क' तरबा उसका रहलए'
बेचैन क' देलकए-'एतेक-एतेक काल सुस्तएब' तँ
कखन जाक' पहुँचब'? फुर्ती कर' फुर्ती । ओना,
आइ धरि कतबा दूर चलल छ' ऐ धरती पर?'
डेग आगाँ उठबैत निश्छल विनोद सँ ओ पूछैत गेल ।
ओतहि सँ हम
टूटल कमानी, बाँसक डंटी, चेफरी लागल ई छत्ता तनने
चलि रहल छी
प्रेम मे एखन चलब ।आओर चलब -निरन्तरता धरि
पनगब !

(चारि)
ई टूटल-फाटल छ्त्ता ककरो सौंपिये क' ने
निश्चिन्त भ' सकब ।
प्रेम मे बडे.  हँसलहुँ । बहुते हँसलहुँ ।
ततेक हँसलौं जे आब कानि-कानि क'
अपने नोरक सिन्धु भ' गेलहुँ
ओही मे हेलि रहल छी-एकटा
अकिंचन समृद्ध चित्तक नाव मे बैसल छी,
झिलहरि खेला रहल छी

( पाँच )
असुरक्षित निरन्तरताक बोली-बानी मे
गीत गबै छी, गबिते जा रहल छी
अनथक अबिते जा रहल छी-
माटि,ज'ल, वायु, आकाश, आगि सँ होइत प्राण मे
पसरि क' सूतल नहि, अहर्निश जागि रहल छी
चित्त कार्पोरेटी निवेश सँ बाँचल अछि ।
रच्छ अछि-
देखी कहिया धरि ई प्रेम !

— गंगेश गुंजन 
Previous Post Next Post